बिहार में बीते कुछ दिनों में हुई जघन्य हत्याओं ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या राज्य सरकार की ‘सुशासन’ की परिकल्पना अब केवल भाषणों और बयानों तक सिमट कर रह गई है? पटना जैसे वीआईपी इलाके में एक नामी कारोबारी की सरेआम हत्या, सीवान में पांच लोगों पर तलवार से हमला और आज दानापुर में एक स्कूल संचालक की हत्या – ये घटनाएं न केवल कानून-व्यवस्था की भयावह तस्वीर पेश करती हैं, बल्कि राज्य में आमजन की सुरक्षा को लेकर बढ़ती असुरक्षा का गम्भीर संकेत भी देती हैं।
पटना की घटना खासतौर पर चौंकाने वाली है क्योंकि यह शहर का सबसे सुरक्षित माना जाने वाला इलाका है, जहाँ से कुछ ही दूरी पर जिलाधिकारी और पुलिस अधिकारियों के आवास हैं। फिर भी अपराधी न सिर्फ हत्या करते हैं, बल्कि आराम से फरार भी हो जाते हैं। क्या यह सिर्फ एक लापरवाही है, या फिर राज्य की सुरक्षा व्यवस्था की पूरी विफलता?
सीवान की घटना और भी दिल दहला देने वाली है, जहाँ दिनदहाड़े तलवारों से हमला कर पांच लोगों को काट डाला गया। यह सब तब हो रहा है जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दो दशकों से अधिक समय से सत्ता में हैं और अपने शासन को ‘सुशासन’ का उदाहरण बताते नहीं थकते। पर सच्चाई यह है कि जनता अब इस खोखले दावे से थक चुकी है।
आज जब आम नागरिक को यह भरोसा नहीं कि वो अपने ही शहर में, अपने ही घर के पास सुरक्षित है, तो फिर विकास की बातें बेमानी लगती हैं। अपराधियों में कानून का डर न होना, पुलिस की निष्क्रियता और सरकार की चुप्पी—ये सभी संकेत करते हैं कि शासन व्यवस्था की रीढ़ अब कमजोर पड़ चुकी है।
सरकार और सत्तारूढ़ दल जब भी आलोचना का सामना करते हैं, तो बार-बार ‘जंगल राज’ के पुराने दौर का हवाला देकर बचाव की कोशिश करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि अगर आज के बिहार में कानून का डर नहीं, अपराध बेलगाम हैं और जनता डरी हुई है—तो फिर इसे क्या कहा जाए? क्या यह भी जंगल राज का ही एक नया संस्करण नहीं है?
नीतीश कुमार को यह समझना होगा कि केवल अतीत को कोसने और प्रचार के माध्यम से सकारात्मक छवि गढ़ने से जनता की समस्याएं नहीं सुलझतीं। अब वक्त है कि वह अपनी सरकार की कमजोरियों को स्वीकारें और ज़मीनी स्तर पर बदलाव की ठोस पहल करें। अन्यथा, राज्य की कानून-व्यवस्था की यह गिरावट न केवल सरकार की साख को ध्वस्त करेगी, बल्कि जनता के भरोसे को भी चकनाचूर कर देगी।
बिहार की जनता अब सिर्फ वादों में नहीं, बदलाव में यक़ीन चाहती है—और वह बदलाव, ऊपर से नीचे तक, पूरी व्यवस्था में चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं.)

